आलोचना >> सामाजिक विमर्श के आईने में 'चाक' सामाजिक विमर्श के आईने में 'चाक'सं. विजय बहादुर सिंह
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उपन्यास के शुरुआती पृष्ठों पर ही सास और गर्भवती विधवा बहू के बीच यह दृश्य खड़ा कर मैत्रेयी ने पहली बार स्त्री की निगाह से देखने की पहल की है।
रेशम विधवा थी—जमाने के लिए, रीति-रिवाजों के लिए, शास्त्र-पुराणों के चलते घर और गाँव के लिए। विधवा सिर्फ विधवा होती है, वह औरत नहीं रहती—फिर यह बात पता नहीं उसे किसी ने समझाई कि नहीं? और रेशम ने, विधवा रेशम ने गर्भ धारण कर लिया। मगर जब सास ने कौड़ी-सी आँखें निकालकर उसे देखा, यह कहते हुए—'मेरे बेटा की मौत से दगा करनेवाली, हरजाई, बदकार तेरा मुँह देखने से नरक मिलेगा, तो रेशम ने कहा—'आज को तुम्हारा बेटा मेरी जगह होता तो पूछतीं कि तू किसके संग सोया था?...तुम खुश हो रही होतीं कि पूत की उजड़ी जिन्दगी बस गई। पर मेरा फजीता करने पर तुली हो। उपन्यास के शुरुआती पृष्ठों पर ही सास और गर्भवती विधवा बहू के बीच यह दृश्य खड़ा कर मैत्रेयी ने पहली बार स्त्री की निगाह से देखने की पहल की है। अंतत: हिन्दी आलोचना का चला आता सामाजिक व्याकरण यहाँ अचकचा उठता है और आलोचकों को अपना परम्परागत सामाजिक ऑनर याद आने लगता है, जिन्होंने घर-परिवार के घिसे-पिटे और सामाजिक जीवन में लाई जानेवाली फॉर्मूलाई तरकीबों और क्रान्तिभ्रष्ट क्रान्तियों के यथार्थ को अपने किसी साफ-सुथरे और दिखावटी सच की तरह अब तक पाल-पोस रखा था। मैत्रेयी का लेखन नए सिरे से पढऩे की जमीन तैयार करता है। यह भी पूछने का मन बनाता है कि महादेवी, तुम नीर और भरी दुख की बदली क्यों हो? क्यों इस विस्तृत नभ का कोई एक कोना भी तुम्हारा अपना नहीं है? क्या किसी आलोचक ने इसके सामाजिक-आर्थिक आशयों और आधारभूत जमीनी सच्चाइयों पर बात करना जरूरी माना? मैत्रेयी इस अर्थ में एक समर्पणशील विनयी लेखिका नहीं हैं। उनकी बनावट में यह है ही नहीं। किसी भी कदम पर वे गुडिय़ा बनने को तैयार नहीं हैं। 'चाक इस सम्बन्ध में उनके लेखन का घोषणा-पत्र भी है और ऐतिहासिक-सांस्कृतिक दस्तावेज भी। यही इसका अन्तरंग चरित्र और औपन्यासिक शील भी है।
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